Ad

climate change

वैज्ञानिकों ने गेहूं की फसल को गर्मी के तनाव से बचने के लिए हीट टॉलरेंट किस्में विकसित की

वैज्ञानिकों ने गेहूं की फसल को गर्मी के तनाव से बचने के लिए हीट टॉलरेंट किस्में विकसित की

विभिन्न जलवायु खतरों में से गर्मी का तनाव सबसे महत्वपूर्ण है, जो फसल उत्पादन को बाधित करता है। प्रजनन चरण के दौरान गर्मी से संबंधित क्षति फसल की उपज को बहुत नुकसान पहुंचाती है। गेहूं में टर्मिनल हीट स्ट्रेस से मॉर्फोफिजियोलॉजिकल बदलाव, जैव रासायनिक व्यवधान और आनुवंशिक क्षमता में कमी आती है।

गेहूं की फसल में गर्मी का तनाव जड़ों और टहनियों का निर्माण, डबल रिज चरण पर प्रभाव और वानस्पतिक चरण में प्रारंभिक बायोमास पर भी प्रभाव डालती  है। गर्मी के तनाव के अंतिम खराब परिणामों में अनाज की मात्रा, वजन में कमी, धीमी अनाज भरने की दर, अनाज की गुणवत्ता में कमी और अनाज भरने की अवधि में कमी शामिल है।              

आज के आधुनिक युग में जहां तापमान में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। सर्दी के मौसम में भी गर्मी होती है जिस कारन से रबी की फसल उत्पादन पर बहुत बुरा प्रभाव पद रहा है। जिस कारण से किसानों को भी बहुत नुकसान का सामना करना पड़ रहा है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने विकसित की हीट टॉलरेंट किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने गेहूं की फसल के उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए गेहूं की नई किस्में विकसित की है। ये किस्में मार्च अप्रैल के महीने में तापमान में होने वाली वृद्धि में भी अच्छी उपज दे सकती है। इन किस्मों में ऐसे जीन डालें गए है जो की अधिक तापमान में भी फसल की उत्पादकता में कमी नहीं आने देंगे। 

ये भी पढ़ें: गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

इन किस्मों की बुवाई किसान समय और देरी से भी कर सकते है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक से बातचीत के दौरान पता चला है की उन्होंने गेहूं की बहुत सारी किस्में विकसित की है जो की समय पर बुवाई और देरी से बुवाई के लिए उचित है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित गेहूं की अधिक उपज देने वाली किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने कई किस्में विकसित की है जो की मार्च और अप्रैल की गर्मी को सहन करके भी अच्छी उपज देगी। कृषि वैज्ञानिकों ने कई नई किस्में विकसित की है जिनकी बुवाई से किसानों को अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा। इन किस्मों के नाम आपको निचे देखने को मिलेंगे। 

ये भी पढ़ें: गेहूं की उन्नत किस्में, जानिए बुआई का समय, पैदावार क्षमता एवं अन्य विवरण

HD- 3117, HD-3059, HD-3298, HD-3369 ,HD-3271, HI-1634, HI-1633, HI- 1621, HD 3118(पूसा वत्सला) ये सभी किस्में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गयी है। इन  किस्मों में मार्च अप्रैल के अधिक तापमान को सहने की क्षमता है। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार कृषि प्रबंधन तकनीकों को आपके भी गेहूं में गर्मी के तनाव को कम किया जा सकता है

कुछ कृषि प्रबंधन तकनीकों में बदलाव करके भी किसान गेहूं की फसल में गर्मी के तनाव को कम कर सकते है - जैसे की मिट्टी की नमी की हानि को कम करने के लिए संरक्षण खेती, उर्वरकों की संतुलित खुराक का उपयोग करना,  बुआई की अवधि और तरीकों को बदलना आदि  अत्यधिक गर्मी के प्रभाव को कम करने के लिए बाहरी संरक्षक का उपयोग करना, गेहूं को गर्म वातावरण में उगाने के लिए बेहतर तरीके से तैयार किया जा सकता है। 

इनके अलावा गर्मी के तनाव के कारण पानी की कमी को कम करने के लिए मल्चिंग एक अच्छा विकल्प हो सकता है, खासकर वर्षा आधारित क्षेत्रों में जहां पानी की उपलब्धता एक गंभीर चिंता का विषय है। जैविक मल्च मिट्टी की नमी बनाए रखने, पौधों की वृद्धि और नाइट्रोजन उपयोग दक्षता में सुधार करने में मदद करते हैं।

भारत के उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में, जीरो टिलेज तकनीक का उपयोग करके चावल के ठूंठों की उपस्थिति में गेहूं बोने से पानी और मिट्टी के पोषक तत्वों के संरक्षण में मदद मिलती है और खरपतवार की घटनाओं को कम किया जाता है। इससे गेहूं की फसल को अंतिम गर्मी के तनाव के अनुकूल बनाया जाता है और गेहूं की फसल के समग्र स्वास्थ्य में सुधार होता है।

गेहूं की लंबी किस्मों की अनुशंसित बुआई समय से अधिक देरी करने से फसल को प्रजनन के बाद के चरणों में गर्मी के तनाव का सामना करना पड़ सकता है जो अंततः उपज और अनाज की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इसलिए किसी भी कीमत पर गेहूं की समय पर बुवाई की जाने वाली किस्मों की देर से बुआई करने से बचना चाहिए। जल्दी पकने वाली और लंबी दाना भरने की अवधि वाली किस्मों के रोपण से टर्मिनल ताप तनाव के प्रभाव से बचा जा सकता है। 

भारत के वनों के प्रकार और वनों से मिलने वाले उत्पाद

भारत के वनों के प्रकार और वनों से मिलने वाले उत्पाद

प्राकृतिक वनस्पतियों में विविधता के मामले में भारत विश्व के कुछ गिनती के देशों में शामिल है। हिमालय की ऊंचाइयों से लेकर पश्चिमी घाट और अंडमान तथा निकोबार दीप समूह पर पाई जाने वाली वनस्पतियां भारत के लोगों को अच्छा वातावरण उपलब्ध करवाने के अलावा कई प्रकार के फायदे पहुंचाती है। भारत में पाए जाने वाले जंगल भी इन्हीं वनस्पतियों की विविधताओं के हिस्से हैं।

क्या होते हैं जंगल/वन (Forest) ?

एक परिपूर्ण और बड़े आक्षेप में बात करें तो मैदानी भागों या हिल (Hill) वाले इलाकों में बड़े क्षेत्र पर, पेड़ों की घनी आबादी को जंगल कहा जाता है। दक्षिण भारत में पाए जाने वाले जंगलों से, उत्तर भारत में मिलने वाले जंगल और पश्चिम भारत के जंगल में अलग तरह की विविधताएं देखी जाती है।

ये भी पढ़ें: प्राकृतिक खेती ही सबसे श्रेयस्कर : ‘सूरत मॉडल’

भारत में पाए जाने वाले जंगलों के प्रकार :

जलवायु एवं अलग प्रकार की वनस्पतियों के आधार पर भारतीय वन सर्वेक्षण संस्थान (Forest Survey of India - FSI) के द्वारा भारतीय वनों को 5 भागों में बांटा गया है :

सामान्यतः भारत के दक्षिणी हिस्से में पाए जाने वाले इस प्रकार के वन उत्तरी पूर्वी राज्य जैसे असम और अरुणाचल प्रदेश में भी फैले हुए हैं।

इस प्रकार के वनों के विकास के लिए वार्षिक वर्षा स्तर 200 सेंटीमीटर से अधिक होना चाहिए और वार्षिक तापमान लगभग 22 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए।

इस प्रकार के वनों में पाए जाने वाले पौधे लंबी उचाई तक बढ़ते हैं और लगभग 60 मीटर तक की ऊंचाई प्राप्त कर सकते हैं।

इन वनों में पाए जाने वाले पेड़ पौधे वर्ष भर हरे-भरे रहते हैं और इनकी पत्तियां टूटती नहीं है, इसीलिए इन्हें सदाबहार वन कहा जाता है

भारत में पाए जाने वाले सदाबहार वनों में रोजवुड (Rosewood), महोगनी (Mahogany) और ईबोनी (ebony) जैसे पेड़ों को शामिल किया जा सकता है। उत्तरी पूर्वी भारत में पाए जाने वाले चीड़ (Pine) के पेड़ भी सदाबहार वनों की विविधता के ही एक उदाहरण हैं।

भारत के कुल क्षेत्र में इस प्रकार के वनों की संख्या सर्वाधिक है, इन्हें मानसून वन भी कहा जाता है। इस प्रकार के वनों के विकास के लिए वार्षिक वर्षा 70 से 200 सेंटीमीटर के बीच में होनी चाहिए।

पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट के कुछ इलाकों के अलावा उड़ीसा और हिमालय जैसे राज्यों में पाए जाने वाले वनों में, शीशम, महुआ तथा आंवला जैसे पेड़ों को शामिल किया जाता है। पर्णपाती वन उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ क्षेत्रों में भी पाए जाते हैं, जिनमें तेंदू, पलाश तथा अमलतास और बिल्व तथा खैर के पेड़ों को शामिल किया जा सकता है।

इस प्रकार के वनों में पाए जाने वाले पेड़ों की एक और खास बात यह होती है, कि मानसून आने से पहले यह पेड़ अपनी पत्तियों को गिरा देते हैं और जमीन में बचे सीमित पानी के इस्तेमाल से अपने आप को जीवित रखने की कोशिश करते हैं, इसीलिए इन्हें पतझड़ वन भी कहा जाता है।

  • उष्णकटिबंधीय कांटेदार वन (Tropical Thorn Forest) :

50 सेंटीमीटर से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगने वाले कांटेदार वनों को सामान्यतः वनों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है, क्योंकि इनमें घास और छोटी कंटीली झाड़ियां ज्यादा होती है।

पंजाब, हरियाणा और राजस्थान तथा गुजरात के कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इन वनों को देखा जाता है। बबूल पेड़ और नीम तथा खेजड़ी के पौधे इस श्रेणी में शामिल किए जा सकते हैं।

  • पर्वतीय वन (Montane Forest) :

हिमालय क्षेत्र में पाए जाने वाले इस प्रकार के वन अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर उगने में सहज होते हैं, इसके अलावा दक्षिण में पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट के कुछ इलाकों में भी यह वन पाए जाते हैं।

वनीय विज्ञान के वर्गीकरण के अनुसार इन वनों को टुंड्रा (Tundra) और ताइगा (Taiga) कैटेगरी में बांटा जाता है।

1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाने वाले यह पर्वतीय जंगल, पश्चिमी बंगाल और उत्तराखंड के अलावा तमिलनाडु और केरल में भी देखने को मिलते हैं।

देवदार (Cedrus Deodara) के पेड़ इस प्रकार के वनों का एक अनूठा उदाहरण है। देवदार के पेड़ केवल भारतीय उपमहाद्वीप में ही देखने को मिलते हैं। देवदार के पेड़ों का इस्तेमाल विनिर्माण कार्यों में किया जाता है।

विंध्या पर्वत और नीलगिरी की पहाड़ियों में उगने वाले पर्वतीय वनों को 'शोला' नाम से जाना जाता है।

  • तटीय एवं दलदली वन (Littoral and Swamp Forest) :

वेटलैंड वाले क्षेत्रों में पाए जाने वाले इस प्रकार के वन उड़ीसा की चिल्का झील (Chilka Lake) और भरतपुर के केवलादेव राष्ट्रीय पार्क के आस पास के क्षेत्रों के अलावा सुंदरवन डेल्टा क्षेत्र और राजस्थान, गुजरात और कच्छ की खाड़ी के आसपास काफी संख्या में पाए जाते हैं।

यदि बात करें इन वनों की विविधता की तो भारत में विश्व के लगभग 7% दलदली वन पाए जाते है, इन्हें मैंग्रोव वन (Mangrove forest) भी कहा जाता है।

वर्तमान समय में भारत में वनों की स्थिति :

भारतीय वन सर्वेक्षण के द्वारा जारी की गयी इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021 (Forest Survey of India - STATE OF FOREST REPORT 2021) के अनुसार, साल 2019 की तुलना में भारतीय वनों की संख्या में 1500 स्क्वायर किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई है और वर्तमान में भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग 21.67 प्रतिशत क्षेत्र में वन पाए जाते हैं। "इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2021" से सम्बंधित सरकारी प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) रिलीज़ का दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें मध्य प्रदेश राज्य फॉरेस्ट कवर के मामले में भारत में पहले स्थान पर है। पर्यावरण के लिए एक बेहतर विकल्प उपलब्ध करवाने वाले वन क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में सहयोग के अलावा किसानों के लिए भी उपयोगी साबित हो सकते है।

अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल (जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स - Genetically Modified Crops)

अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल (जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स - Genetically Modified Crops)

एक समय विश्व व्यापार में होने वाले निर्यात में भारतीय कृषि की भूमिका चीन के बाद में दूसरे स्थान पर हुआ करती थी। हालांकि अभी भी कुछ फसलों के उत्पादन और निर्यात में भारत सर्वश्रेष्ठ स्थान पर है, परंतु अन्य फसलों में उत्पादकता बढ़ाने के लिए पिछले कुछ समय से भारतीय कृषि वैज्ञानिकों और विदेश के कई बड़े कृषि विश्वविद्यालयों की सहायता से आनुवांशिकरूप से संशोधित फसलें तैयार की जा रही है। इस प्रकार तैयार फसलों को 'जेनेटिकली मोडिफाइड क्रॉप्स' या 'जीएम फसल' (Genetically Modified Crops) भी कहा जाता है।

क्या होती है आनुवांशिक रूप से संशोधित फसल (What is Genetically Modified Crops) ?

इन फसलों को एक ऐसे पौधे से तैयार किया जाता है जिसकी जीन में आंशिक रूप से या फिर पूरी तरीके से परिवर्तन कर दिया जाता है। एक सामान्य पौधे की जीन में दूसरी पौधे की जीन को शामिल कर दिया जाता है। मुख्यतः यह कार्य इस प्राथमिक पौधे के कुछ गुणों को बदलने के लिए किया जाता है। इस तकनीक की मदद से पौधे की उत्पादकता को बहुत ही आसानी से बढ़ाया जा सकता है, साथ ही कई कीट और जीवाणुओं के प्रतिरोधक क्षमता भी तैयार की जाती है। अलग-अलग पौधों में होने वाले रोगों के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता का विकास भी जेनेटिकली मोडिफाइड विधि के तहत किया जाता है। 

जेनेटिकली मोडिफाइड (GM) फसल तैयार करने की विधियां तथा तकनीक:

वर्तमान में कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा अनुवांशिक रूप से संशोधित फ़सल तैयार करने के लिए अलग-अलग विधियों का इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका के खाद्य एवं ड्रग व्यवस्थापक संस्थान यानी
फ़ूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA या USFDA - Food and Drug Administration Organisation) की तरफ से कुछ विधियों के बारे में जानकारियां उपलब्ध करवाई गई है, जो कि निम्न प्रकार है:- 

  • परंपरागत संशोधन विधि (Conventional Modification Method) :-

 इस विधि का इस्तेमाल प्राचीन काल से ही किसानों के द्वारा किया जा रहा है।परंपरागत संशोधित विधि के तहत एक ही पौधे की अलग-अलग ब्रीड को चुना जाता है और दोनों ब्रीड के मध्य पोलिनेशन करवाया जाता है। इस क्रॉस पोलीनेशन (Cross-pollination) से तैयार नई पौध तैयार पहले की तुलना में बेहतरीन उत्पादन करने के अलावा पोषक तत्वों की भी अच्छी गुणवत्ता उपलब्ध करवा सकती है। वर्तमान में किसानों के द्वारा उगाए जाने वाले लगभग सभी प्रकार के अनाज और फल-सब्जियां इसी परंपरागत संशोधित विधि से तैयार की हुई रहती है। 

  • जीन में बदलाव कर संशोधन करना :-

यह विधि डीएनए (DNA) की खोज के बाद शुरू हुई थी। वर्तमान में इस विधि के तहत जेनेटिक इंजीनियरिंग (Genetic Engineering) और जीनोम एडिटिंग (Genome Editing) जैसी दो विधियां आती है। 

  • पहली विधि में किसी एक बैक्टीरिया या वायरस की जीन को पौधे की जीन में सम्मिलित कर दिया जाता है। इस तरह तैयार यह नया पौधा भविष्य में इस वायरस या बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों के खिलाफ आसानी से प्रतिरोधी क्षमता तैयार कर सकता है।
  • जिनोम एडिटिंग विधि में किसी पौधे की जीन में से कुछ अनावश्यक जीन्स को हटाया जाता है। कई बार किसी पौधे की एक पूरी जीन के कुछ हिस्से की वजह से बीमारियां जल्दी लग सकती है, इसलिए इस विधि के तहत जीन के उस कमजोर हिस्से को काटकर अलग कर दिया जाता है और बाकी बची हुई जिन को पुनः जोड़ दिया जाता है।

भारत में कौन करता है जीएम फसलों को रेगुलेट (Regulate)?

किसी भी प्रकार की अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल को मार्केट में बेचने और इस्तेमाल करने योग्य बनाने से पहले फसल तैयार करने वाली कम्पनी को सरकार के द्वारा अनुमति की आवश्यकता होती है। वर्तमान में यह अनुमति 'जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी' (Genetic Engineering Appraisal Committee (GEAC)) के द्वारा दी जाती है। यह समिति पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) के अंतर्गत काम करती है। इस समिति से अनुमति मिल जाने के बाद पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा अंतिम परमिशन प्रदान की जाती है  

वर्तमान में भारत में इस्तेमाल होने वाली जेनेटिक मॉडिफाइड फसलें :

पर्यावरण मंत्रालय और जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल समिति की वेबसाइट के अनुसार वर्तमान में भारत में केवल एक ही अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल उगाने की अनुमति दी गई है। 

  • बीटी कॉटन (Bt-Cotton) :

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में वर्तमान में इस्तेमाल की जा रही इस फसल की संशोधित किस्म को भारत सरकार के द्वारा 2002 में अनुमति प्रदान की गई थी। जेनेटिक इंजीनियरिंग विधि से तैयार की गई इस फसल में मिट्टी में पाया जाने वाला एक बैक्टीरिया Bacillus Thuringiensis की जीन को इस्तेमाल किया जाता है, जोकि कपास की सामान्य फसल को नुकसान पहुंचाने वाले गुलाबी रंग के कीड़े (Pink Bollworm) के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता तैयार करता है। कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में उत्पादित होने वाले कपास में केवल इसी एक कीड़े की वजह से ही लगभग 30 से 40 प्रतिशत कपास पूरी तरीके से अनुपयोगी हो जाती है। ये भी पढ़ें : पंजाबः पिंक बॉलवर्म, मौसम से नुकसान, विभागीय उदासीनता, फसल विविधीकरण से दूरी Ht-bt-cotton नाम से मार्केट में बेची जाने वाली अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल में इस बैक्टीरिया के अलावा एक और अतिरिक्त जीन इस्तेमाल की जाती है, जो कि कपास के छोटे पौधे को खरपतवार को खत्म करने के लिए इस्तेमाल में आने वाले रासायनिक केमिकल Glyphosphosate से बचाने में मददगार होता है। 

  • बीटी ब्रिंजल (Bt-Brinjal ) :-

बैंगन की फसल में लगने वाले रोगों से बचाने के लिए तैयार की गई यह अनुवांशिक संशोधित फसल को शुरुआत में अप्रेजल समिति के द्वारा अनुमति दे दी गई थी, परंतु बाद में इस प्रकार तैयार फसल को खाने से होने वाले कई रोगों को मध्य नजर रखते हुए इस अनुमति को वापस ले लिया गया था। हाल ही में पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे कई एनजीओ (NGOs) के विरोध के बाद अनुवांशिक रूप से तैयार की गई मशरूम की संशोधित फ़सल के दैनिक इस्तेमाल पर भी रोक लगा दी गई है।  

जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों से होने वाले फायदे :

अनुवांशिक रूप से संशोधित की हुई फसलें किसानों की आय को बढ़ाने और खर्चे को कम करने के अलावा कई दूसरे प्रकार के फायदे भी उपलब्ध करवा सकती है, जैसे कि स्वर्णिम चावल (Golden Rice) नाम की एक जेनेटिकली मोडिफाइड फ़सल स्वाद में बेहतरीन होने के अलावा परंपरागत चावल की खेती की तुलना में बहुत ही कम समय में पक कर तैयार हो जाती है।

ये भी पढ़ें: स्वर्ण शक्ति: धान की यह किस्म किसानों की तकदीर बदल देगी 

इसके अलावा अलग-अलग रोगों के साथ ही खरपतवार को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल में आने वाले रासायनिक उर्वरकों के खिलाफ भी प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर सकती है। इस प्रकार तैयार फसलों में पोषक तत्वों की मात्रा तो अधिक मिलती ही है, साथ ही रासायनिक उर्वरकों का भी कम इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे खेत की मृदा की गुणवत्ता भी बरकरार रहती है। यदि ऐसी फसलों को पशुओं को खिलाया जाए, तो पशुओं की प्रतिरक्षा प्रणाली भी मजबूत होती है और उनकी वृद्धि को भी बढ़ाया जा सकता है, जिससे पशुओं से अधिक मांस, अंडे और दूध प्राप्त किया जा सकता है। यदि बात करें पर्यावरणीय फायदों की, तो यह फसलें मिट्टी की उर्वरता को तो बढ़ाती ही है, साथ ही पानी के काफी कम इस्तेमाल में भी आसानी से बड़ी हो सकती है, इसीलिए रेगिस्तानी और कम बारिश होने वाले क्षेत्रों में इन फसलों का उत्पादन आसानी से किया जा सकता है। जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों का इस्तेमाल प्राकृतिक खरपतवार नाशक के रूप में भी किया जा सकता है क्योंकि bt-cotton जैसी फ़सल में ऐसे बैक्टीरिया और वायरस की जीन का इस्तेमाल किया जाता है, जो कि पौधे के आसपास उगने वाली खरपतवार को पूरी तरीके से नष्ट कर सकती है। यदि बात करें किसानों के फायदे की तो इन फसलों की कम लागत पर अच्छी पैदावार की जा सकती है, क्योंकि कम सिंचाई और मृदा की कम देखभाल की वजह से खर्चे कम होने से से किसान का मुनाफा बढ़ने के साथ ही बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भोजन की मांग की की पूर्ति भी सही समय पर की जा सकती है।

ये भी पढ़ें: गौमूत्र से बना ब्रम्हास्त्र और जीवामृत बढ़ा रहा फसल पैदावार

जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों के इस्तेमाल से पहले रखें इन बातों का ध्यान:

अरुणाचल प्रदेश में कुछ किसानों के द्वारा सोयाबीन की अनुवांशिक रूप से संशोधित फसल का गैर कानूनी रूप से इस्तेमाल किया जा रहा था, हालांकि इसके इस्तेमाल से किसानों की आमदनी तो बढ़ी परंतु पूरी जांच पड़ताल ना करने और फसल को तैयार करने वाली कम्पनी के द्वारा भारतीय क्षेत्रों को ध्यान में रखकर संशोधन ना करने की वजह से उस क्षेत्र में पाई जाने वाली तितली की एक प्रजाति पूरी तरीके से खत्म हो चुकी है। ऐसा ही एक और उदाहरण गोल्डन चावल के रूप में भी देखा जा सकता है। भारत में पूरी तरीके से प्रतिबंधित चावल की अनुवांशिक रूप से संशोधित यह फसल महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कुछ किसानों के द्वारा गैरकानूनी रूप से उत्पादित की जा रही है। केवल आमदनी बढ़ाने और जल्दी पक कर तैयार होने जैसे फायदों को ही ध्यान में रखते हुए इस फसल के द्वारा तैयार चावल के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान पर कंपनी और किसानों के द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया, जिसकी वजह से इसे खाने वाले लोगों में अंधापन और शरीर में कई दूसरी बीमारियों के अलावा मौत होने जैसी खबरें भी सामने आई है। इसीलिए आशा करते हैं कि हमारे किसान भाई ऊपर बताई गई दो घटनाओं से सीख ले पाएंगे और कभी भी गैरकानूनी रूप से अलग-अलग कंपनी के द्वारा बेचे जाने वाली जेनेटिकली मोडिफाइड फसलों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। आशा करते है कि किसान भाइयों को Merikheti.com के द्वारा आनुवांशिक रूप से संशोधन कर प्राप्त की गई फसलों के बारे में पूरी जानकारी मिल गई होगी और भविष्य में बीटी-कॉटन और सरकार से अनुमति प्राप्त ऐसी फसलों का उत्पादन कर आप भी कम लागत पर अच्छा मुनाफा कमा पाएंगे।

पूसा परिसर में बिल गेट्स ने किया दौरा, खेती किसानी के प्रति व्यक्त की अपनी रुची

पूसा परिसर में बिल गेट्स ने किया दौरा, खेती किसानी के प्रति व्यक्त की अपनी रुची

गेट्स फाउंडेशन के चेयरमैन ब‍िल गेट्स (Bill Gates) द्वारा पूसा कैंपस में गेहूं एवं चने की उन प्रजातियों की फसलों के विषयों में जाना जो जलवायु पर‍िवर्तन की जटिलताओं का सामना करने में समर्थ हैं। विश्व के अरबपति बिल गेट्स (Bill Gates) द्वारा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (ICAR) का भृमण करते हुए, यहां के पूसा परिसर में तकरीबन डेढ़ घंटे का समय व्यतीत किया एवं खेती व जलवायु बदलाव के विषय में लोगों से विचार-विमर्श किया।

बिल गेट्स ने कृषि क्षेत्र में अपनी रुची जाहिर की

आईएआरआई के निदेशक ए.के. सिंह द्वारा मीडिया को कहा गया है, कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सह-अध्यक्ष एवं ट्रस्टी बिल गेट्स (Bill Gates) द्वारा आईएआरआई के कृषि-अनुसंधान कार्यक्रमों, प्रमुख रूप से जलवायु अनुकूलित कृषि एवं संरक्षण कृषि में गहन रुचि व्यक्त की।

ये भी पढ़ें:
भारत के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पूसा कृषि विज्ञान मेला का किया दौरा
इसी मध्य गेट्स (Bill Gates) द्वारा आईएआरआई की जलवायु में बदलाव सुविधा एवं कार्बन डाइऑक्साइड के उच्च पैमाने के सहित खेतों में उत्पादित की जाने वाली फसलों के विषय में जानकारी अर्जित की है। बिल गेट्स ने मक्का-गेहूं फसल प्रणाली के अंतर्गत सुरक्षित कृषि पर एक कार्यक्रम में भी मौजूदगी दर्ज की। गेट्स ने संरक्षण कृषि के प्रति अपनी विशेष रुचि व्यक्त की। उसकी यह वजह है, कि गेट्स का एक लक्ष्य विश्व स्तर पर कुपोषण की परेशानी का निराकरण करना है। इसलिए ही वह स्थायी कृषि उपकरण विकसित करने के लिए निवेश कर रहे हैं। बिल गेट्स द्वारा खेतों में कीड़ों एवं बीमारियों की निगरानी हेतु आईएआरआई द्वारा विकसित ड्रोन तकनीक समेत सूखे में उत्पादित होने वाले छोले पर हो रहे एक कार्यक्रम को ध्यानपूर्वक देखा।

बिल गेट्स (Bill Gates) ने दौरा करने के बाद क्या कहा

संस्थान के निदेशक डॉ. अशोक कुमार स‍िंह द्वारा गेट्स के दौरा को कृषि अध्ययन एवं जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में कारगर कदम बताया है। गेट्स का कहना है, क‍ि देश में कृष‍ि के राष्ट्रीय प्रोग्राम अपनी बेहद अच्छी भूमिका निभा रहे हैं। फाउंडेशन से जुड़कर कार्य करने एवं सहायता लेने हेतु योजना निर्मित कर दी जाएगी। जलवायु परिवर्तन, बायोफोर्टिफिकेशन से लेकर फाउंडेशन सहयोग व मदद करेगा तब और बेहतर होगा। आईएआरआई को जीनोम एडिटिंग की भाँति नवीन विज्ञान के इलाकों में जीनोम चयन एवं मानव संसाधन विकास का इस्तेमाल करके पौधों के प्रजनन के डिजिटलीकरण पर परियोजनाओं हेतु धन उपलब्ध कराया जाएगा।
10 रुपये की फिक्स डिपॉजिट पर मिलेंगे पेड़, किसानों की होगी बंपर कमाई

10 रुपये की फिक्स डिपॉजिट पर मिलेंगे पेड़, किसानों की होगी बंपर कमाई

इन दिनों देश में खेती किसानी को भी मुनाफे वाले व्यवसायों में गिना जाने लगा है, क्योंकि अब देश के किसान आधुनिक तरीकों से खेती करके कम समय में अच्छी खासी कमाई कर रहे हैं। अब किसान पारंपरिक खेती के अलावा पेड़ों की खेती की तरफ भी आकर्षित हो रहे हैं। अगर किसान धैर्य बनाए रखें तो कई ऐसे पेड़ हैं जो समय के साथ किसानों को बंपर मुनाफा प्रदान करते हैं। किसानों की आय बढ़ाने को ध्यान में रखते हुए बिहार राज्य के वन विभाग ने एक नई योजना लॉन्च की है, जिसे 'कृषि वानिकी योजना' कहा जा रहा है। इस योजना के अंतर्गत वन विभाग की तरफ से किसानों को मात्र 10 रुपये की सिक्योरिटी डिपोजिट पर पौधे दिए जा रहे हैं। 3 साल बाद यह सिक्योरिटी डिपोजिट 6 गुना अधिक अनुदान के साथ किसानों को वापस कर दी जाएगी। इस योजना का उद्देश्य खेतों में फसलों के साथ बड़े स्तर पर पेड़ लगाना है, जिसके लिए सरकार लगातार प्रयत्नशील है। ये भी पढ़े: इन 8 योजनाओं से बढ़ेगी किसानों की स्किल, सरकार दे रही है मौका ट्विटर पर जारी 'मुख्यमंत्री कृषि वानिकी योजना' के नोटिफिकेशन में कहा गया है कि इस योजना के अंतर्गत 10 रुपये प्रति पौधा सिक्योरिटी डिपोजिट देकर वन विभाग की नर्सरी से 25 से अधिक पौधे खरीदने होंगे। अगर तीन साल बाद 50 फीसदी पौधे जीवित रहते हैं तो किसान को प्रति पौधा 60 रुपये का अनुदान दिया जाएगा। साथ ही जमा किया गया सिक्योरिटी डिपोजिट भी किसान को वापस कर दिया जाएगा।

इस योजना से ये होंगे लाभ

इस योजना के अंतर्गत पेड़ लगाने से किसानों को अतिरिक्त आय होगी। इसके साथ ही शीशम, अमरूद, गंभीर, आंवला, महोगनी, सागौन, पीपल, जामुन, कचनार, गुलमोहर, आम नीलगिरी, नीम, कदम, बहेड़ा, पलास आदि के पेड़ों की संख्या भी बढ़ेगी। ये पेड़ आगे चलकर पर्यावरण संरक्षण में भी अपना योगदान देंगे।

इस योजना के तहत लाभ उठाने के लिए ऐसे करें आवेदन

इस योजना का लाभ उठाने के लिए बिहार राज्य का निवासी होना आवश्यक है। इसके लिए किसान भाई अपने जिले के कृषि विभाग या वन विभाग के कार्यालय में जाकर आवेदन कर सकते हैं। आवेदन के साथ किसानों को मांगे गए दस्तावजों की फोटो कॉपी लगानी होगी। जिसके बाद अधिकारियों के द्वारा वेरिफिकेशन किया जाएगा। वेरिफिकेशन पूरा होने के बाद पौधे किसानों को दे दिए जाएंगे। साथ ही समय समय पर इन पौधों का निरीक्षण भी किया जाएगा। 3 साल बाद यदि 50 फीसदी पौधे सुरक्षित रहते हैं तो अनुदान और सिक्योरिटी डिपॉजिट की राशि किसान के खाते में जमा कर दी जाएगी। इसके अलावा अधिक जानकारी बिहार के वन विभाग की वेबसाइट  https://forestonline.bihar.gov.in से प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही 0612-2226911 पर फोन के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं।
मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

मोटे अनाज (मिलेट) की फसलों का महत्व, भविष्य और उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी

भारत के किसान भाइयों के लिए मिलेट की फसलें आने वाले समय में अच्छी उपज पाने हेतु अच्छा विकल्प साबित हो सकती हैं। आगे इस लेख में हम आपको मिलेट्स की फसलों के बारे में अच्छी तरह जानकारी देने वाले हैं। मिलेट फसलें यानी कि बाजरा वर्गीय फसलें जिनको अधिकांश किसान मिलेट अनाज वाली फसलों के रूप में जानते हैं। मिलेट अनाज वाली फसलों का अर्थ है, कि इन फसलों को पैदा करने एवं उत्पादन लेने के लिए हम सब किसान भाइयों को काफी कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता। समस्त मिलेट फसलों का उत्पादन बड़ी ही आसानी से लिया जा सकता है। जैसे कि हम सब किसान जानते हैं, कि सभी मिलेट फसलों को उपजाऊ भूमि अथवा बंजर भूमि में भी पैदा कर आसान ढ़ंग से पैदावार ली जा सकती है। मिलेट फसलों की पैदावार के लिए पानी की जरुरत होती है। उर्वरक का इस्तेमाल मिलेट फसलों में ना के समान होता है, जिससे किसान भाइयों को ज्यादा खर्च से सहूलियत मिलती है। जैसा कि हम सब जानते हैं, कि हरित क्रांति से पूर्व हमारे भारत में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न में मिलेट फसलों की प्रमुख भूमिका थी। लेकिन, हरित क्रांति के पश्चात इनकी जगह धीरे-धीरे गेहूं और धान ने लेली और मिलेट फसलें जो कि हमारी प्रमुख खाद्यान्न फसल हुआ करती थीं, वह हमारी भोजन की थाली से दूर हो चुकी हैं।

भारत मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों की पैदावार में विश्व में अव्वल स्थान पर है

हमारा भारत देश आज भी मिलेट फसलों की पैदावार के मामले में विश्व में सबसे आगे है। इसके अंतर्गत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, झारखंड, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसान भाई बड़े पैमाने पर मोटे अनाज यानी मिलेट की खेती करते हैं। बतादें, कि असम और बिहार में सर्वाधिक मोटे अनाज की खपत है। दानों के आकार के मुताबिक, मिलेट फसलों को मुख्यतः दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। प्रथम वर्गीकरण में मुख्य मोटे अनाज जैसे बाजरा और ज्वार आते हैं। तो उधर दूसरे वर्गीकरण में छोटे दाने वाले मिलेट अनाज जैसे रागी, सावा, कोदो, चीना, कुटुकी और कुकुम शम्मिलित हैं। इन छोटे दाने वाले, मिलेट अनाजों को आमतौर पर कदन्न अनाज भी कहा जाता है।

ये भी पढ़ें:
सेहत के साथ किसानों की आय भी बढ़ा रही रागी की फसल

वर्ष 2023 को "अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष" के रूप में मनाया जा रहा है

जैसा कि हम सब जानते है, कि वर्ष 2023 को “अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है। भारत की ही पहल के अनुरूप पर यूएनओ ने वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष के रूप में घोषित किया है। भारत सरकार ने मिलेट फसलों की खासियत और महत्ता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2018 को “राष्ट्रीय मिलेट वर्ष” के रूप में मनाया है। भारत सरकार ने 16 नवम्बर को “राष्ट्रीय बाजरा दिवस” के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

मिलेट फसलों को केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर से बढ़ावा देने की कोशिशें कर रही हैं

भारत सरकार द्वारा मिलेट फसलों की महत्ता को केंद्र में रखते हुए किसान भाइयों को मिलेट की खेती के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है। मिलेट फसलों के समुचित भाव के लिए सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा किया जा रहा है। जिससे कि कृषकों को इसका अच्छा फायदा मिल सके। भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के स्तर से मिलेट फसलों के क्षेत्रफल और उत्पादन में बढ़ोत्तरी हेतु विभिन्न सरकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। जिससे किसान भाई बड़ी आसानी से पैदावार का फायदा उठा सकें। सरकारों द्वारा मिलेट फसलों के पोषण और शरीरिक लाभों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण एवं शहरी लोगों के मध्य जागरूकता बढ़ाने की भी कोशिश की जा रही है। जलवायु परिवर्तन ने भी भारत में गेहूं और धान की पैदावार को बेहद दुष्प्रभावित किया है। इस वजह से सरकार द्वारा मोटे अनाज की ओर ध्यान केन्द्रित करवाने की कोशिशें की जा रही हैं।

मिलेट यानी मोटे अनाज की फसलों में पोषक तत्व प्रचूर मात्रा में विघमान रहते हैं

मिलेट फसलें पोषक तत्वों के लिहाज से पारंपरिक खाद्यान गेहूं और चावल से ज्यादा उन्नत हैं। मिलेट फसलों में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होने की वजह इन्हें “पोषक अनाज” भी कहा जाता है। इनमें काफी बड़ी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-E विघमान रहता है। कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन कैल्शियम, मैग्नीशियम भी समुचित मात्रा में पाया जाता है। मिलेट फसलों के बीज में फैटो नुत्त्रिएन्ट पाया जाता है। जिसमें फीटल अम्ल होता है, जो कोलेस्ट्राल को कम रखने में सहायक साबित होता है। इन अनाजों का निमयित इस्तेमाल करने वालों में अल्सर, कोलेस्ट्राल, कब्ज, हृदय रोग और कर्क रोग जैसी रोगिक समस्याओं को कम पाया गया है।

मिलेट यानी मोटे अनाज की कुछ अहम फसलें

ज्वार की फसल

ज्वार की खेती भारत में प्राचीन काल से की जाती रही है। भारत में ज्वार की खेती मोटे दाने वाली अनाज फसल और हरे चारे दोनों के तौर पर की जाती है। ज्वार की खेती सामान्य वर्षा वाले इलाकों में बिना सिंचाई के हो रही है। इसके लिए उपजाऊ जलोड़ एवं चिकिनी मिट्टी काफी उपयुक्त रहती है। ज्वार की फसल भारत में अधिकांश खरीफ ऋतु में बोई जाती है। जिसकी प्रगति के लिए 25 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस तक तापमान ठीक होता है। ज्वार की फसल विशेष रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में की जाती है। ज्वार की फसल बुआई के उपरांत 90 से 120 दिन के समयांतराल में पककर कटाई हेतु तैयार हो जाती है। ज्वार की फसल से 10 से 20 क्विंटल दाने एवं 100 से 150 क्विंटल हरा चारा प्रति एकड़ की उपज है। ज्वार में पोटैशियम, फास्पोरस, आयरन, जिंक और सोडियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल विशेष रूप से उपमा, इडली, दलिया और डोसा आदि में किया जाता है।

बाजरा की फसल

बाजरा मोटे अनाज की प्रमुख एवं फायदेमंद फसल है। क्योंकि, यह विपरीत स्थितियों में एवं सीमित वर्षा वाले इलाकों में एवं बहुत कम उर्वरक की मात्रा के साथ बेहतरीन उत्पादन देती हैं जहां अन्य फसल नहीं रह सकती है। बाजरा मुख्य रूप से खरीफ की फसल है। बाजरा के लिए 20 से 28 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूल रहता है। बाजरे की खेती के लिए जल निकास की बेहतर सुविधा होने चाहिए। साथ ही, काली दोमट एवं लाल मिट्टी उपयुक्त हैं। बाजरे की फसल से 30 से 35 क्विंटल दाना एवं 100 क्विंटल सूखा चारा प्रति हेक्टेयर की पैदावार मिलती है। बाजरे की खेती मुख्य रूप से गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में की जाती है। बाजरे में आमतौर पर जिंक, विटामिन-ई, कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर तथा विटामिन-बी काम्प्लेक्स की भरपूर मात्रा उपलब्ध है। बाजरा का उपयोग मुख्य रूप से भारत के अंदर बाजरा बेसन लड्डू और बाजरा हलवा के तौर पर किया जाता है।

रागी (मंडुआ) की फसल

विशेष रूप से रागी का प्राथमिक विकास अफ्रीका के एकोपिया इलाके में हुआ है। भारत में रागी की खेती तकरीबन 3000 साल से होती आ रही है। रागी को भारत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मौसम में उत्पादित किया जाता है। वर्षा आधारित फसल स्वरुप जून में इसकी बुआई की जाती है। यह सामान्यतः आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, तमिलनाडू और कर्नाटक आदि में उत्पादित होने वाली फसल है। रागी में विशेष रूप से प्रोटीन और कैल्शियम ज्यादा मात्रा में होता है। यह चावल एवं गेहूं से 10 गुना ज्यादा कैल्शियम व लौह का अच्छा माध्यम है। इसलिए बच्चों के लिए यह प्रमुख खाद्य फसल हैं। रागी द्वारा मुख्य तौर पर रागी चीका, रागी चकली और रागी बालूसाही आदि पकवान निर्मित किए जाते हैं।

कोदों की फसल

भारत के अंदर कोदों तकरीबन 3000 साल पहले से मौजूद था। भारत में कोदों को बाकी अनाजों की भांति ही उत्पादित किया जाता है। कवक संक्रमण के चलते कोदों वर्षा के बाद जहरीला हो जाता है। स्वस्थ अनाज सेहत के लिए फायदेमंद होता है। इसकी खेती अधिकांश पर्यावरण के आश्रित जनजातीय इलाकों में सीमित है। इस अनाज के अंतर्गत वसा, प्रोटीन एवं सर्वाधिक रेसा की मात्रा पाई जाती है। यह ग्लूटन एलजरी वाले लोगो के इस्तेमाल के लिए उपयुक्त है। इसका विशेष इस्तेमाल भारत में कोदो पुलाव एवं कोदो अंडे जैसे पकवान तैयार करने हेतु किया जाता है।

सांवा की फसल

जानकारी के लिए बतादें, कि लगभग 4000 वर्ष पूर्व से इसकी खेती जापान में की जाती है। इसकी खेती आमतौर पर सम शीतोष्ण इलाकों में की जाती है। भारत में सावा दाना और चारा दोनों की पैदावार के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह विशेष रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार और तमिलनाडू में उत्पादित किया जाता है। सांवा मुख्य फैटी एसिड, प्रोटीन, एमिलेज की भरपूर उपलब्ध को दर्शाता है। सांवा रक्त सर्करा और लिपिक स्तर को कम करने के लिए काफी प्रभावी है। आजकल मधुमेह के बढ़ते हुए दौर में सांवा मिलेट एक आदर्श आहार बनकर उभर सकता है। सांवा का इस्तेमाल मुख्य तौर पर संवरबड़ी, सांवापुलाव व सांवाकलाकंद के तौर पर किया जाता है।

ये भी पढ़ें:
श्री अन्न का सबसे बड़ा उत्पादक देश है भारत, सरकार द्वारा उत्पादन बढ़ाने के लिए किए जा रहे हैं कई प्रयास

चीना की फसल

चीना मिलेट यानी मोटे अनाज की एक प्राचीन फसल है। यह संभवतः मध्य व पूर्वी एशिया में पाई जाती है, इसकी खेती यूरोप में नव पाषाण काल में की जाती थी। यह विशेषकर शीतोष्ण क्षेत्रों में उत्पादित की जाने वाली फसल है। भारत में यह दक्षिण में तमिलनाडु और उत्तर में हिमालय के चिटपुट इलाकों में उत्पादित की जाती है। यह अतिशीघ्र परिपक्व होकर करीब 60 से 65 दिनों में तैयार होने वाली फसल है। इसका उपभोग करने से इतनी ऊर्जा अर्जित होती है, कि व्यक्ति बिना थकावट महसूस किये सुबह से शाम तक कार्यरत रह सकते हैं। जो कि चावल और गेहूं से सुगम नहीं है। इसमें प्रोटीन, रेशा, खनिज जैसे कैल्शियम बेहद मात्रा में पाए जाते हैं। यह शारीरिक लाभ के गुणों से संपन्न है। इसका इस्तेमाल विशेष रूप से चीना खाजा, चीना रवा एडल, चीना खीर आदि में किया जाता है।
किसान भाइयों की आमदनी में निरंतर गिरावट की वजह क्या है

किसान भाइयों की आमदनी में निरंतर गिरावट की वजह क्या है

किसान भाइयों की लगातार आमदनी में हो रही कमी की कई वजह हैं। बतादें, कि किसान भाइयों को जलवायु में हो रहे निरंतर बदलाव की वजह से विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। दरअसल, एक सर्वे में भी जलवायु परिवर्तन को ही आय में गिरावट का मुख्य कारक बताया गया है। किसानों की आमदनी में लगातार कमी होती जा रही है। एक सर्वे ने खुलासा किया है, कि धरती पर निरंतर हो रहे जलवायु में बदलाव की वजह से किसानों पर भी प्रभाव पड़ रहा है। सर्वे के मुताबिक इस कारण विगत दो सालों में किसानों की आमदनी में पिछले दो सालों में औसत 15.7% की गिरावट आई है। साथ ही, इस दौरान 6 में से एक किसान को 25 प्रतिशत तक की हानि हुई है।

ज्यादातर किसान भविष्य में खेती को लेकर चिंतित

सर्वे में 71 प्रतिशत किसानों ने कहा है, कि जलवायु परिवर्तन की वजह उनकी खेती पर अब तक व्यापक दुष्प्रभाव पड़ चुका है। अधिकांश किसान भविष्य में खेती पर दुष्प्रभाव पड़ने को लेकर चिंतित हैं। 73 फीसदी किसानों का कहना हैं, कि
कीटनाशकों व फसलों के रोगों के कारण अधिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है। 'फार्मर वॉइस' सर्वे ने दुनिया भर के किसानों को जलवायु परिवर्तन से निपटने और भविष्य की तैयारियों के लिए सामने आने वाली चुनौतियों को प्रदर्शित किया है।

ये भी पढ़ें:
बागवानी किसानों के लिए समस्या बनती जलवायु परिवर्तन, कैसे बचाएं अपनी उपज

भारत और केन्या के किसान चिंतित

लाइफ साइंस कंपनी बेयर ने विश्व भर में 800 किसानों से 'फार्मर वॉइस' सर्वे किया। इनमें जर्मनी, भारत, केन्या, यूक्रेन, यूएस, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील और चीन के छोटे और बड़े किसानों की तकरीबन समान संख्या थी। किसानों का मानना है, कि जलवायु परिवर्तन की वजह से खेती में उत्पन्न होने वाली चुनौती आगे भी बनी रहेंगी। विश्व स्तर पर तीन चौथाई किसानों ने बताया कि जलवायु परिवर्तन से उनकी खेती पर काफी दुष्प्रभाव पड़ेगा। भारत और केन्या के किसान इससे ज्यादा चिंतित थे।

किसानों की समस्याओं को स्पष्ट दिखाना आवश्यक

बेयर एजी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के सदस्य और क्रॉप साइंस डिवीजन के प्रेसिडेंट रोड्रिगो सैंटोस ने कहा है, कि किसानों को जलवायु परिवर्तन की वजह से खेती पर दुष्प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त वह गंभीर चुनौती से निपटने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। इसलिए उनकी आवाज को सामने लाना अत्यंत आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन की वजह से विश्व खाद्य सुरक्षा पर आने वाले संकट को इस सर्वे ने स्पष्ट तौर पर दिखाया है। बतादें, कि बढ़ती वैश्विक जनसँख्या को देखते हुए, सर्वे से मिले नतीजे कैपिटलिस्टों को कृषि का रीजेनरेटिव बनाने में सहायता करेंगे।
जलवायु परिवर्तन किस प्रकार से कृषि को प्रभावित करता है ?

जलवायु परिवर्तन किस प्रकार से कृषि को प्रभावित करता है ?

आजकल जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा बनकर सामने आ रहा है। जलवायु परिवर्तन किसी देश विशेष या राष्ट्र से संबंधित अवधारणा नहीं है। जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक अवधारणा है, जो समस्त पृथ्वी के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है। 

जलवायु परिवर्तन से भारत समेत संपूर्ण विश्व में बाढ़, सूखा, कृषि संकट एवं खाद्य सुरक्षा, बीमारियां, प्रवासन आदि का खतरा बढ़ा है। परंतु, भारत का एक बड़ा तबका (लगभग 60 प्रतिशत आबादी) आज भी कृषि पर निर्भर है, और इसके प्रभाव के प्रति सहज है। इसलिए कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित दस शीर्ष देशों में शम्मिलित है। जलवायु की बदलती परिस्थितियां कृषि को सर्वाधिक प्रभावित कर रहीं हैं। क्योंकि, दीर्घ काल में ये मौसमी कारक जैसे वर्षा, तापमान, आर्द्रता आदि पर निर्भर करती है। 

अतः इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन कृषि को कैसे प्रभावित करता है।

जलवायु परिवर्तन कृषि को निम्नलिखित तरह से प्रभावित कर सकता है

कृषि उपज में गिरावट 

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से विश्व कृषि इस सदी में गंभीर गिरावट का सामना कर रही है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) के मुताबिक, वैश्विक कृषि पर जलवायु परिवर्तन का कुल प्रभाव नकारात्मक होगा। 

हालांकि कुछ फसलें इससे काफी लाभान्वित होंगी किन्तु फसल उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का कुल प्रभाव सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक होगा।

ये भी पढ़ें: कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जुताई की आवश्यकताएं (Tillage requirement in agro-climatic conditions in Hindi)

भारत में 2010-2039 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण लगभग 4.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत के बीच उत्पादन के गिरने की आशंका है। एक शोध के मुताबिक, अगर वातावरण का औसत तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो इससे गेहूं का उत्पादन 17 प्रतिशत तक कम हो सकता है। 

इसी प्रकार 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन भी 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम होने की संभावना है।

कृषि के अनुकूल परिस्थितियों में कमी

जलवायु परिवर्तन के चलते तापमान के उच्च अक्षांश (high latitude) की ओर खिसकने से निम्न अक्षांश (low latitude) प्रदेशों में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। 

भारत के जल स्रोत तथा भंडार बड़ी तीव्रता से सिकुड़ रहे हैं, जिससे किसानों को परंपरागत सिंचाई के तौर तरीका छोडकर पानी की खपत कम करने वाले आधुनिक तरीके एवं फसलों का चयन करना होगा। 

ग्लेशियर के पिघलने से विभिन्न बड़ी नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र में दीर्घावधिक तौर पर कमी आ सकती है, जिससे कृषि एवं सिंचाई में जलाभाव से गुजरना पड़ सकता है। 

एक रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने से पृथ्वी के तीन चौथाई भूमि भाग की गुणवत्ता कम हो गई है।

जलवायु परिवर्तन से औसत तापमान में वृद्धि

जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले कई दशकों में तापमान में इजाफा हुआ है। औद्योगीकरण की शुरुआत से अब तक पृथ्वी के तापमान में तकरीबन 0.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है। 

कुछ ऐसे पौधे होते हैं, जिन्हें एक विशेष तापमान की जरूरत होती है। वायुमंडल का तापमान बढ़ने पर उनकी पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जैसे जौ, आलू, गेंहू और सरसो आदि इन फसलों को कम तापमान की जरूरत होती है। 

ये भी पढ़ें: जलवायु परिवर्तन कृषि क्षेत्र को किस प्रकार से प्रभावित करता है

वहीं, तापमान में इजाफा होना इनके लिए काफी हानिकारक होता है। इसी तरह ज्यादा तापमान बढ़ने से मक्का, ज्वार और धान इत्यादि फसलों का क्षरण हो सकता है। 

क्योंकि, ज्यादा तापमान की  वजह से इन फसलों में दाना नहीं बनता या कम बनता है। इस तरह तापमान की वृद्धि इन फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

वर्षा के काल चक्र में परिवर्तन 

भारत का दो तिहाई कृषि क्षेत्र बरसात पर आश्रित है और कृषि की उत्पादकता वर्षा एवं इसकी मात्रा पर निर्भर होती है। वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन से मृदा क्षरण और मृदा की नमी पर असर पड़ता है। 

जलवायु की वजह तापमान में वृद्धि से वर्षा में गिरावट होती है, जिससे मिट्टी में नमी खत्म होती जाती है। इसके अलावा तापमान में कमी और वृद्धि होने का असर वर्षा पर पड़ता है, जिसके कारण भूमि में अपक्षय और सूखे की संभावनाएँ अधिक हो जाती हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव कुछ वर्षों से गहन रूप से प्रभावित कर रहे हैं। मध्य भारत 2050 तक शीत वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक कमी का अनुभव करेगा।

पश्चिमी अर्धमरुस्थलीय क्षेत्र द्वारा सामान्य वर्षा की अपेक्षा ज्यादा वर्षा प्राप्त करने की संभावना है। इसी प्रकार मध्य पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि एवं वर्षा में कमी से चाय की फसल में कमी हो सकती है।

कार्बन डाइऑक्साइड में बढ़ोतरी 

कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विक तापमान में करीब 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी करती है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी से व तापमान में वृद्धि से पेड़-पौधों तथा कृषि पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 

पिछले 30-50 वर्षों के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा करीब 450 पीपीएम (प्वाइंट्स पर मिलियन) तक पहुँच गयी है। हालांकि, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि कुछ फसलों जैसे गेहूं तथा चावल के लिए लाभदायक है। 

क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तीव्र करती है और वाष्पीकरण के द्वारा होने वाली हानियों को कम करती है। परंतु, इसके बावजूद भी कुछ मुख्य खाद्यान्न फसलें जैसे गेंहू की पैदावार में काफी गिरावट आई है, जिसका कारण कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि यानी तापमान में वृद्धि ही है।

कीट एवं रोगों का संकट बढ़ना 

जलवायु परिवर्तन की वजह से कीटों और रोगाणुओं में वृद्धि होती है। गर्म जलवायु में कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता काफी बढ़ जाती है, जिससे कीटों की तादात काफी बढ़ जाती है और इसका कृषि पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है। 

साथ ही, कीटों और रोगाणुओं को रोकने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल भी कहीं ना कहीं कृषि फसल के लिए हानिकारक ही होता है।

हालांकि, कुछ ज्यादा सूखा-सहिष्णु फसलों को जलवायु परिवर्तन से लाभ हुआ है। ज्वार की उपज, जिसका खाद्यान्न के रूप में उपयोग दुनिया में विकासशील भारत के अधिकांश लोग करते हैं। 

1970 के दशक के पश्चात पश्चिमी, दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में तकरीबन 0.9% फीसद की वृद्धि हुई है। उप सहारा अफ्रीका में 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। 

वहीं, यदि कुछ फसलों को छोड़ दिया जाए तो, कुल फसल उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नकारात्मक ही पड़ता है।

खेती-किसानी पर जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के उपाय

खेती-किसानी पर जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के उपाय

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अध्ययन के मुताबिक, 2050 तक विश्व की जनसंख्या लगभग 9 अरब हो जाएगी। अब ऐसे में खाद्यान्न की आपूर्ति और मांग के मध्य अंतर को कम करने के लिए मौजूदा खाद्यान्न उत्पादन को दोगुना करने की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए भारत जैसे कृषि प्रधान देशों को अभी से नये उपाय खोजने होंगे। 

हमारी कृषि व्यवस्था को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के बहुत सारे उपाय हैं, जिन्हें अपनाकर कुछ हद तक कृषि पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है। साथ ही, पर्यावरण मैत्री तरीकों का इस्तेमाल करके कृषि को जलवायु परिवर्तन के अनुरूप किया जा सकता है। कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं। 

वर्षा जल का उचित प्रबंधन जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करेगा  

वातावरण के तापमान में बढ़ोतरी के साथ-साथ फसलों में सिंचाई की ज्यादा जरूरत पड़ती है। अब ऐसी स्थिति में जमीन का संरक्षण व वर्षा जल को इकठ्ठा करके सिंचाई के लिए उपयोग में लाना एक उपयोगी कदम सिद्ध हो सकता है। 

वाटर शेड प्रबंधन के जरिए हम वर्षा जल को संचित करके सिंचाई के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे एक ओर हमें सिंचाई में मदद मिलेगी, वहीं दूसरी ओर भू-जल पुनर्भरण में भी मददगार साबित होगा।

जैविक एवं मिश्रित कृषि से जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम होगा 

रासायनिक खेती से हरित गैसों में काफी बढ़ोतरी होती है, जो वैश्विक तापमान में सहयोगी होती हैं। इसके अतिरिक्त रासायनिक खाद व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक तरफ मृदा की उत्पादकता कम होती है, वहीं दूसरी ओर मानव स्वास्थ्य को भी भोजन के माध्यम से हानि पहुँचाती है। 

ये भी पढ़ें: कृषि-जलवायु परिस्थितियों में जुताई की आवश्यकताएं (Tillage requirement in agro-climatic conditions in Hindi)

अतः इसलिए जैविक कृषि की तकनीकों पर ज्यादा बल देना चाहिए। एकल कृषि के स्थान पर मिश्रित (समग्रित) कृषि काफी लाभदायक होती है। मिश्रित कृषि में विविध फसलों का उत्पादन किया जाता है, जिससे कि उत्पादकता के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने की संभावना बहुत कम हो जाती है।

फसल उत्पादन में विभिन्न आधुनिक तकनीकों का विकास

जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों को मंदेनजर रखते हुए ऐसे बीज एवं नवीन किस्मों का विकास किया जाए जो नये मौसम के अनुकूल हों। हमें फसलों के प्रारूप और उनके बीज बोने के वक्त में भी परिवर्तन करना होगा। 

ऐसी किस्मों को विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे तथा बाढ़ जैसी संकटमय परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता रखती हों। पारंपरिक ज्ञान और नवीन तकनीकों के समन्वयन और समावेशन द्वारा मिश्रित खेती तथा इंटरक्रोपिंग करके जलवायु परिवर्तन के संकटों से जूझा जा सकता है।

जलवायु स्मार्ट कृषि (क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर) बेहद मददगार   

भारत में जलवायु स्मार्ट कृषि (Climate smart Agriculture-CSA) विकसित करने की ठोस कवायद की गयी है, जिसके लिए राष्ट्रीय परियोजना भी जारी की गई है। दरअसल, जलवायु स्मार्ट कृषि जलवायु परिवर्तन की तीन परस्पर चुनौतियों से लड़ने का प्रयास करती है। 

उत्पादकता और आय बढाना, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होना तथा कम उत्सर्जन करने में योगदान करना। उदाहरण के तौर पर सिंचाई की बात करें तो जल के समुचित उपयोग के लिए सूक्ष्म सिंचाई (माइक्रो इरिगेशन) को लोकप्रिय बनाना है। 

भारत सरकार द्वारा इस दिशा में उठाए गए अहम कदम  

भारत में सबसे पहले जलवायु परिवर्तन के प्रति स्वयं को अनुकूल बनाने और सतत विकास मार्ग के द्वारा आर्थिक एवं पर्यावरणीय लक्ष्यों को एक साथ हासिल करने का प्रयास किया गया है। 

इसको लेकर प्रधानमन्त्री ने 2008 में जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना जारी की है। जलवायु परिवर्तन पर निर्मित आठ राष्ट्रीय एक्शन प्लान में से एक (राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन) कृषि क्षेत्र पर भी केंद्रित है।

राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन / National Mission for Sustainable Agriculture-NMSA

राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन वर्ष 2008 में शुरू किया गया। यह मिशन ‘अनुकूलन’ पर आधारित है। इस मिशन द्वारा भारतीय कृषि को जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक प्रभावी एवं अनुकूल बनाने के लिए कार्यनीति बनाई गई। 

ये भी पढ़ें: भारत में जलवायु अनुकूल कृषि प्रणालियों की आवश्यकता

इस मिशन के उद्देश्यों में कुछ विशेष बातों पर विशेष ध्यान दिया गया है, जैसे, कृषि से अधिक उत्पादन प्राप्त करना, टिकाऊ खेती पर जोर देना, प्राकृतिक जल-स्रोतों व मृदा संरक्षण पर ध्यान देना, फसल व क्षेत्रानुसार पोषक प्रबंधन करना, भूमि-जल गुणवत्ता बरकरार रखना तथा शुष्क कृषि को बढ़ावा देना इत्यादि। 

इसके साथ ही वैकल्पिक कृषि पद्धति को भी अपनाया जाएगा और इसके अंतर्गत जोखिम प्रबंधन, कृषि संबंधी ज्ञान सूचना व प्रौद्योगिकी पर विशेष बल दिया जाएगा। इसके अतिरिक्त, मिशन को परंपरागत ज्ञान और अभ्यास प्रणालियों, सूचना प्रौद्योगिकी, भू-क्षेत्रीय और जैव प्रौद्योगिकियों के सम्मिलन व एकीकरण से सहायता मिलेगी।

जलवायु अनुरूप कृषि पर राष्ट्रीय पहल / National Innovations in Climate Resilient Agriculture: NICRA

यह राष्ट्रीय पहल भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ( ICAR) का एक नेटवर्क प्रोजेक्ट है, जोकि फरवरी 2011 में आया था। इस प्रोजेक्ट का मकसद रणनीतिक अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी प्रदर्शन द्वारा जलवायु परिवर्तन एवं जलवायु दुर्बलता के प्रति भारतीय कृषि की सहन क्षमता को बढ़ाना है। इसको ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को उच्च प्राथमिकता पर रखा है। 

  1. रणनीतिक अनुसंधान (Strategic Research)
  2. प्रौद्योगिकी प्रतिपादन ( Technology Demonstration)
  3. प्रायोजित एवं प्रतियोगी अनुदान (Sponsored and Competitive grants)
  4. क्षमता निर्माण (Capacity Building)

इसके प्रमुख बिन्दुओं में भारतीय कृषि (फसल, पशु इत्यादि) को जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति सक्षम बनाना, जलवायु सह्य कृषि अनुसंधान में लगे वैज्ञानिकों व दूसरे हितधारको की क्षमता का विकास करना तथा किसानों को वर्तमान जलवायु संकट के अनुकूलन हेतु प्रौद्योगिकी पैकेज का प्रदर्शन कर दिखाने का उद्देश्य रखा गया है।

अतः कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक और भारतीय कृषि व्यवस्था पर वृहद स्तर पर प्रभाव डालता है। ऊपर दिये गए सुझावों व तकनीकों को अपनाकर कृषि व्यवस्था को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से बचाया जा सकता है। 

ऐसा करना आज के समय की जरूरत है वर्ना आगामी समय में इसके घातक परिणाम झेलने पड़ सकते हैं। इसी दिशा में अर्थात भारतीय कृषि को जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल और सक्षम बनाने में भारत सरकार की तरफ से की गई कोशिशें भी सराहनीय हैं। 

इस प्रकार कृषि को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से संरक्षण देने के लिए हमें मिल-जुलकर पर्यावरण मैत्री तरीकों को वरीयता देनी होगी। ताकि हम अपने प्राकृतिक संसाधन को बचा सकें एवं कृषि व्यवस्था को अनुकूल बना सकें।

इस साल रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आशंका - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

इस साल रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आशंका - भारतीय मौसम विज्ञान विभाग

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) द्वारा की गई घोषणा के मुताबिक, भारत में इस वर्ष गर्मी के मौसम (अप्रैल से जून) में औसत से ज्यादा गर्मी के दिन देखने को मिल जाएंगे।  

भारत के ज्यादातर इलाकों में सामान्य से भी ज्यादा तापमान दर्ज किए जाने की संभावना है। दरअसल, अनुमान यह है, कि गर्मी का सबसे ज्यादा प्रभाव दक्षिणी इलाके, मध्य भारत, पूर्वी भारत और उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों पर पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत के मैदानी क्षेत्रों में इस बार हर साल से अधिक तपिश देखने को मिलेगी। 

यह ऐलान तब किया गया जब भारत पहले से ही अपनी बिजली की मांग को पूर्ण करने के लिए संघर्ष कर रहा है, जो गर्मी के मौसम में बेहद बढ़ जाती है। 

एक विश्लेषण में कहा गया कि 31 मार्च, 2024 को समाप्त होने वाले साल में भारत का जलविद्युत उत्पादन कम से कम 38 सालों में सबसे तेज गति से गिरा है। 

ये भी पढ़ें: जानें इस साल मानसून कैसा रहने वाला है, किसानों के लिए फायदेमंद रहेगा या नुकसानदायक

आगामी महीनों में भी जलविद्युत उत्पादन शायद सबसे कम रहेगा, जिससे कोयले पर निर्भरता काफी बढ़ जाएगी। साथ ही, इससे वायु प्रदूषण अगर बढेगा तो ये गर्मी में और अधिक योगदान प्रदान करेगा।

भारतीय मौसम विभाग ने क्या कहा है ?

आईएमडी के पूर्वानुमान में कहा गया है, कि पूर्व और उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों और उत्तर-पश्चिम के कुछ इलाकों को छोड़कर भारत के अधिकांश हिस्सों में गर्मी  सामान्य से ज्यादा ही रहेगी। यानी कि अधिकतम और न्यूनतम तापमान सामान्य से भी ऊपर रहेगा। 

भारत में इस बार अधिक गर्मी पड़ने की आशंका है ?

अल नीनो भारत में कम वर्षा और अधिक गर्मी का कारण बनती है। भूमध्यरेखीय प्रशांत क्षेत्र में मध्यम अल नीनो स्थितियां अभी मौजूद हैं, जिसकी वजह से समुद्र की सतह के तापमान में लगातार बढोतरी हो रही है। 

समुद्र की सतह पर गर्मी समुद्र के ऊपर वायु प्रवाह को प्रभावित करती है। चूंकि, प्रशांत महासागर धरती के करीब एक तिहाई भाग को कवर करता है। इसलिए इसके तापमान में परिवर्तन और उसके बाद हवा के पैटर्न में परिवर्तन विश्वभर में मौसम को बाधित करता रहा है। 

ये भी पढ़ें: अलनीनों का खतरा होने के बावजूद भी चावल की बुवाई का रकबा बढ़ता जा रहा है

यूएस नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन का कहना है, कि इस वर्ष की जनवरी 175 सालों में सबसे गर्म जनवरी थी। हालांकि, अगले सीजन के दौरान अल नीनो के कमजोर होने और ‘तटस्थ’ होने की संभावना है। 

कुछ मॉडलों ने मानसून के दौरान अल नीनो की स्थिति विकसित होने की भी संभावना जताई है, जिससे पूरे दक्षिण एशिया में विशेष रूप से भारत के उत्तर-पश्चिम और बांग्लादेश में तेजी से वर्षा हो सकती है।